सोमवार, 29 सितंबर 2008

धनुष यज्ञ.

तेहिं क्षन राम मध्य धनुष तोरा ..
धनुष राम तोड़ते हैं._परसुराम आते हैं_चरों ओर हाहाकार मच जाताहै।
कहो जनक क्या कारन है,भारी भीड़ भाड़ क्यों है _
अभी शोर -सा कैसा था,अब वीरों मे छेडछाड़ क्यों है ?
जनक के कारन बताने पर परसुराम को भारी क्रोध आता है _
ऐ जनक बता तू शीघ्र मुझे ,यह धनुहा किसने तोडा है
किसने इस भरे स्वयंवर में सीता से नाता जोड़ा है
इसीबीच राम _नाथ शम्भू धनु भंजन हारा,होइहैं कोऊ इक दास तुम्हारा _कहकर परसुराम को प्रणाम करते हैं पर परसुराम जी आवेष मे कहते हैं _
सुनो राम सेवक वो है ,जिसका सेवा पर ही चित है
बैरी का जो काम करे,वो काट डालने काबिल है
_सुनहु राम जो शिव धनु तोरा सहसबाहु सम सो रिपु मोरा...
_सो बिलगाई विहाय समाजा नतु मारे जैहैं सब राजा
लक्षमण की शरारत से परसुराम का गुस्सा भड़क जाता है वे _
देख ओ रजा के लड़के ,तू मुह को नहीं सभालता है
मुझ जैसे क्रोधी के सामने ,क्यों आखें लाल निकलता है
श्री महादेव का महा धनुष ,जो पुरी पृथ्वी मैं जलहर है
इतना बड़ा प्रचंड चाँद यूं ही धनुहीं के समदर है
_तकरार तेज होती है _
_अरे नादान बालक तू कौन है ?
_सारा ब्रम्हांड सर पर धरे तू कौन है?
_ मैं छतरियों का काल हूँ
_तो मैं शास्स्त्रशाल हूँ
_अभी तू नादान बालक सुकुमार है
_नहीं ये बालक वीर रघुवंश कुमार है
_दूध मुहे बड़ों से हंसी छोड़ ,यह हंसना तुझे रुलाएगा
कर देगा दांत अभी खट्टे ,फरसा ओह स्वाद चाखायेगा
लड़के महलों मैं खेल -खेल क्योँ मुझसे लड़ के मरता है
मेरी क्रोधानल के आगे, किसलिए लड़कपन करता है
_राम की विनम्रता और एक बार काल से भी लड़ने की ललकार के बाद परसुराम राम के प्रति अपना आदर भाव व्यक्त करते हैं _राम रमापति कर धनु लेहु ,खैंचहु चाप मिटे संदेहू ....
__कर्वी की यह रामलीला लगभग १५०-सालों से उपर का सफर कर रही है._पहले तो परिवार मैं यह होता था की रामलीला अवसर पर सबलोग शामिल होते थे पर अब कहाँ ....जानें कहाँ गए वो दिन __ये जो यादें मैं आप से जी रहा हूँ ये लगभग ४०-४५ साल पहले यानि सन ६०-६५ के दौर की बातें हैं
__कर्वी की रामलीला अनुथानिक और संवाद प्रधान होती थी। दसहरा को रावण बध आगे कुछ दिन बाद राम की राजगद्दी । आगे के प्रसंग नहीं उठाते ...राजगद्दी के बाद नाटकों का सिलसिला चलता है । उस दौर मैं हमलोग वीर अर्जुन और कृष्णावतार [राधेश्याम कथावाचक के ] जरुर खेलते थे। रामलीला मैं राम,सीता के प्रात्र तो बच्चे [१३-१४ साल तक] ही निभाते और महिला पात्रों काम पुरूष करते.





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शनिवार, 27 सितंबर 2008

थोड़ा कुछ अपने बारे में...

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सीमा पर आलोकित चित्रकूट से कोई सात किलोमीटर उत्तर एक छोटा-सा क़स्बा _कर्वी नाम से है _जो अब _ चित्रकूट धाम कर्वी के नाम से जाना जाता है ._यही छोटा-सा क़स्बा कर्वी अपने बालमन और बालपन की क्रीडा भूमि रही और जो पहला प्ले-ग्राउंड मिला वो __रामलीला का ही था._शुरूआती दिनों शत्रुघ्न की भूमिका मिली बाद में लक्ष्मन की ._आलम यह था कि... धनुषयज्ञ की लीला में पिताजी [पुरुषोत्तम लाल रिछारिया] परशुराम की भूमिका में होते और ग्रैंड-फादर [पं प्यारेलाल रिछारिया ]_पेटुराजा के चरित्र में _क्या गजब का रूपक सजता _जबकि लिहाजन हम लोग शायद कभी-कभी ही आमने- सामने पड़ते हों ._उत्तर भारत के परिवारों में तब के दौर के बाप-बेटे के बीच संवाद के अवसर कम ही आते थे और पिता तो अपने पिता के सामने अपने बेटे से कम ही लाड-प्यार जताते थे । अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि _कैसा होता रहा होगा परसुराम लक्ष्मन संवाद ._चौदस की रात होती है धनुष यज्ञ की लीला कर्वी में .
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शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

यादों के सिलसिले...

यादों के सिलसिलों के मुहाने पर अपने होंने का अहसास _ यह अहसास भी अपने आप में अजब-सा अहसास है_अजब -सी दस्तक_ अजब-सा खुमार_कोई नाम है इस अहसास का या सब अनाम है__

नाम_ टिल्लन [ जो कानों ने सुना] जो आंखों ने देखा _ शिव शम्भू दयाल रिछारिया । आसपास जो आबोहवा और खनक थी उसमें _रंग, राग,रस,कवित्त,संगीत और रामलीला का खासा असर था जो अपने ऊपर भी छाता चला गया._जब कारवां आगे बढा तो ये ही सब जीवन के सफर में पतवार बने और जीवन का आधार भी.

गुरुवार, 25 सितंबर 2008

चित्रकूट घाट पर...

चित्रकूट के घाट पर इन दिनों संतों के मेलों और संगतों के आलावा रामलीलाओं की भी खासी धूम मची है .देश _खासकर उत्तर भारत मैं इन दिनों पितृ-पक्ष के उतरते-उतरते रामलीलाओं का शुभारम्भ हो जाता है._मेरे लिए ये दौर यादों का ज्वार लेकर आता है._जबसे कुछ भी याद है तो याद के रूप जो पहली याद है वो है रामलीला के शुरूआती दिन_ताडका-बध के लिए मुनि विश्वामित्र राजा दशरथ से राम और लक्ष्मन को मँगाने आए हैं और दशरथ मना कर रहे हैं_
--मांगिये मुनिराज यज्ञ रक्षा के काज
चाहे सेना गज बाज चाहे धन धाम को
खाडे शमशीर वीर बांके रणवीर धीर
योधा सुगम्भीर खल दल के संग्राम को
आप से दयानिधान इतना ही मांगता हूँ

मांगो जो हो मांगना पर न मांगो रामचंद्र को
दशकों पहले की ये बातें आज भी बीते कल तरह ताजा हैं और ताजा हैं वो सारे दृश्य और वे अनुभूतियाँ जो मेरी अपनी जिन्दगी के सफर का आगाज बने.

रविवार, 21 सितंबर 2008

पहली नजर

आधी छोड़ पूरी को धावे, पूरी मिले न आधी पावे।