शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

और एक दिन ...बंबई !


चलते -चलते एक दिन सारे नज़ारे बदले- बदले से लगने लगते हैं .लगता है जैसे ये हमारी दुनिया नहीं है._और जो दुनिया मिलती है उसे अपना मानना पड़ता है._जो सच है ,हकीक़त है वो तो है _जो बीता है ,वो बीता है _वो आज नहीं है._चलते-चलते बदलते जाना ही क्या जिन्दगी है?_क्या यही हकीकत है? _बड़ा कठिन है अतीत की गलियों से बहार निकल पाना ._किशोर वय के बाद के सिलसिले कब स्कूल के गलियारों से होते हुए कॉलेज और डिग्री कॉलेज के आँगन से बाहर निकाल _सन १९८० के दिसम्बर में तब की बंबई और आज की मुम्बई के नरीमन पॉइंट इलाके में खड़े _एक्सप्रेस टावर के दूसरे माले में _शरद जोशी _ के सामने खड़ा कर गए ...अहसास हुआ तो पाया_
टूटी सपनों की बैसाखियाँ तबीयत हो गयी हरी ।
....................जब से मिली बॉम्बे की नौकरी । ।
_पहली नौकरी थी _इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ऑफ़ बॉम्बे की साप्ताहिक पत्रिका _हिन्दी एक्सप्रेस और पहले संपादक थे _शरद जोशी ... जानते हैं आप शरद जोशी को _ये प्याज़ वाला शरद जोशी नहीं है _ये ...ये जो है जिंदगी वाला शरद जोशी है...उन दिनों ...दो ही जोशी धूम पर थे _एक _मनोहर श्याम जोशी ...हम लोग वाले और दूसरे व्यंग वाले शरद जोशी । _उस दिन ट्रेन जब बॉम्बे के वी टी रेलवे स्टेशन पर पहुँच रही थी तो मेरे हाँथ मई जो अखबार था उसकी हेड लाइन थी _शरद जोशी गिरफ्तार _गिरफ्तार दरअसल प्याज़ वाले शरद जोशी हुए थे._