सोमवार, 5 जनवरी 2009

कोहरे की गिरफ्त !


लपेटे शाल कोहरे का...!

सुबह और शाम कोहरे का आलम है ...जन - जीवन , रहन - सहन , खान - पान ...सब बदला - बदला सा है _अजब - सी खुमारी है...अजब सा हाल है दिल - दिमाग का _

लपेटे शाल कोहरे का
दुबक कर सो रहा आकाश !

सातवें दशक के शुरुआती साल ... 'कादम्बिनी 'में प्रकाशित हुई थी यह कविता !... ' कादम्बिनी 'क्या !

एक जमाने में कोहरे को लेकर ये लाइनें _

मत कहो आकाश में कोहरा घना है !
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है !!

...भी खासी जुबान पर चढीं रहीं...और तरह - तरह लहजे और अर्थ देतीं रहीं _दुष्यंत कुमार का काव्य नए मुहावरे ढाल रहा था अपने दौर में ... !

अखबारों ...समाचारों ...में कोहरा सुर्खियों में है _एक वृतांत _

आइटीओ...बहादुरशाह जफ़र मार्ग ...ढल रही सांझ कोहरे से भर रही थी __आज तो कोई ख़बर हाथ नहीं लगी !...१९९० से पहले का दौर था ...वीपी सिंह की सरकार थी...चंद्रशेखर जी दाढी खुजला रहे थे ...! __मैनें रिपोर्टर से कहा _'पागल हो क्या ...जाओ बाहर सड़क की तरफ़ मुंह करके पांच मिनट खड़े रहो...थोडा दांयें - बांये भी मुंह घुमा लेना । '

लौटा तो _' बड़ा घना कोहरा है ...कुछ समझ नहीं आरहा ...तिलक ब्रिज दिख नहीं रहा ...दांयें ...इंडियन एक्सप्रेस ...धुंधले में हल्का सा लुपलुपा रहा है....'

बस्स ! इसी को लिख दो __वीपी सिंह ...देवीलाल ....चंद्रशेखर ...अरुण शौरी ...राजीव गाँधी ...आडवानी के नाम बीच - बीच में जोड़ते जाना !

'वीर अर्जुन ' की 'एंकर - स्टोरी ' बन गयी __हेडिंग बनी __उफ़ ...! ये घना कोहरा ! !

जिंदगी के रंग !