शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

जिन्दगी ...जंग ! तब की बम्बई न पहचाने इस रंग को !

इन दिनों बम्बई का मौसम …खुशनुमा और खनक भरा रहता है.__शाम हल्की सर्द …समन्दर के किनारे - किनारे चलें तो नमकीन झोंके खुमार में लें जाएँ …अमूमन ये झोंके शाम को साथ रहते ही थे !…जब अकेले निकालता था …एक्सप्रेस टावर से तो …एयर इंडिया की बिल्डिंग से ही समंदर का साथ पकड़ लेता था…आसमान पर होती सिंदूरी आभा …सांझ …सांवली होती हुई …. ‘ नेकलेस ऑफ़ बॉम्बे… ‘ दमक उठता… ! __जितना पी सकता था उतना पीता था__सांझ का सौन्दर्य !…ओबेरॉय के सामने से होते हुए एकदम किनारे तक …फ़िर समंदर के साथ - साथ … चर्चगेट से मरीन ड्राइव होते हुए …चौपाटी …चौपाटी तो सांझ ढलते ही रंग - बिरंगी रोशनियों की फुलवारी बन जाती है __शहर के बीच लोगों का सैलाब__पर इधर अपने और अपनों में खोये लोग ….कहीं दो बदन एक जान …कहीं सिर्फ़ हाथों में हाथ …कहीं कोई …मेले में अकेला…कहीं कोई …उलझनों का मेला ….! कहीं __ जोश , मदहोश , अफसोश …कैसे - कैसे लोग …कैसे -कैसे रंग __किसी की जिंदगी जंग ! …जी नहीं …तब के दौर की बम्बई ने जिंदगी को तमाम रंगों से सराबोर किया था __ पर जंग का रंग क्या होता है न कोई जानता था …और ना पहचानता था ! यहाँ तो तब ‘स्ट्रगल’ नाम का एक जीव हुआ करता था ….जो हमेशा ….मुस्कुराते और गुनगुनाते मिला करता था __मुसाफिर हूँ यारो…और आबोदाना ढूंढते हैं …! अजीब सी रूमानियत भरा होता था तब….स्ट्रगल…! !